दलित उत्पीड़न पर सरकार का सकारात्मक नजरिया दिखावा ज्यादा है काम कम है।

सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले (क्रिमिनल अपील नम्बर 416/2018) के मामले के बहाने सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न रोकथाम) कानून, 1989 को लेकर 20 मार्च, 2018 को जो दिशा-निर्देश जारी किया है, उसकी पृष्ठभूमि पर गौर करना जरूरी है।पहली बात कि सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले के बहाने दलित-आदिवासी उत्पीड़न विरोधी इस कानून के प्रावधानों की नई व्याख्याएं पेश की हैं। एक मामले के बहाने पूरे कानून पर सवाल खड़ा करने की मिसालें इन दिनों बढ़ रही हैं। खास तौर से वंचित वगरे के सशक्तिकरण से जुड़े कानूनों के साथ यह देखा जा रहा है।
दलित-आदिवासी उत्पीड़न विरोधी कानून से पहले सुप्रीम कोर्ट के इन्हीं दो जजों की बैंच ने महिलाओं के उत्पीड़न संबंधी कानून की भी लगभग इसी तरह व्याख्या की थी। सुप्रीम कोर्ट कोई टापू पर बैठी संस्था नहीं है। फैसले अपने समय की राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों की कड़ी होते हैं। जिस तरह से एक लंबे समय तक राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों के दबाव में आकर संसद को इस तरह का कानून बनाना पड़ा था, ठीक उसी तरह उसके उल्ट राजनीतिक और सामाजिक दबावों में वंचितों की सुरक्षा व हितों में बनाए गए प्रावधानों पर हमले हो रहे हैं। ये राजनीतिक और सामाजिक दबाव क्या हैं? ये दबाव क्या समाज के वंचित वगरे के हितों की सुरक्षा का है, या फिर ये दबाव वंचितों के हितों से नाराज होने वाले समाज के वर्चस्ववादी समूहों का दबाव हैं? 2009 में महाराष्ट्र के कराड स्थित सरकारी फार्मेसी कॉलेज में एक दलित कर्मचारी द्वारा प्रथम श्रेणी के दो अधिकारियों के खिलाफ उक्त कानून की धाराओं के तहत शिकायत दर्ज कराने का मामला है।
डीएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी ने उसकी जांच की और चार्जशीट दायर करने के लिए आला अधिकारियों से लिखित निर्देश मांगा। उस संस्थान के प्रभारी डॉ. सुभाष काशीनाथ महाजन ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया और चार्जशीट दायर नहीं की जा सकी। तब उक्त दलित कर्मचारी ने डॉ. महाजन के खिलाफ शिकायत दर्ज की। डॉ. महाजन ने हाई कोर्ट में उस एफआईआर को रद्द करने की मांग की जिसे हाई कोर्ट ने ठुकरा दिया। इसके बाद डॉ. महाजन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। इस तरह उत्पीड़न का शिकार होने वाले कर्मचारी के बजाय यह मामला सरकार बनाम डॉ. महाजन के रूप में सुप्रीम कोर्ट के सामने आया। फैसले के वक्त के सामाजिक राजनीतिक हालात पर भी गौर करना होगा। केंद्र में जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उस पार्टी का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आधार उस दौरान सत्ता की पूरी प्रक्रिया को संचालित करता है। नरेन्द्र मोदी की सरकार के आने के बाद दलित उत्पीड़न की घटनाएं बुहत तेजी के साथ बढ़ी हैं। वंचित वगरे के लिए सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों के आरक्षण के प्रावधानों को लगातार कमजोर होते महसूस किया जा रहा है। यूजीसी ने विविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों की नियुक्तियों में आरक्षण के प्रावाधनों को इस तरह से कर दिया है कि वंचित वगरे में असुरक्षा की भावना और बढ़ गई है। इन सब हालातों को बीच रखकर ही सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की समीक्षा की जा सकती है।इस मामले में कानून की सुरक्षा करने में सरकार की विफलता ही सामने आई है

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